Monday, December 27, 2021

इल्ज़ाम न दो

 रंज-ओ-गम से लबरेज़ हूँ,अब और इल्ज़ाम न दो। 

बे-ख़्याली में रहने दो, अब दर्द तमाम न दो। 


इश्क़ के हुक्मरानों से,बस एक गुज़ारिश आखिर में, 

टूट रहा हो जो तारा, उसे उसका आसमान न दो। 


दिल-ओ-दीवार फांदकर,क्यूँ आते हो,मेरे तस्सवुर में,

राहत-ए-सफर में यूँ आकर, अब और विराम न दो। 


तेरी जफ़ाओं के मंज़र,आज दफ़्न पड़े हैं कब्रों में, 

इन बेहिसी के किस्से को, अब नया मक़ाम न दो।


दश्त-ए-तन्हाई में गुजरी हैं,कई वस्ल की रातें, 

'रौशन' सवेरा करने को,अब बेकसी का नाम न दो। 





सोहबत

ख़्वाबों को हक़ीक़त दो,इन गलियों का ठिकाना दो, अपनी जुल्फ़ों को ज़रा खोलो,मुझे मेरा ठिकाना दो मयकशी का आलम है,मोहब्बत की फिज़ा भी है, आखो...