रंज-ओ-गम से लबरेज़ हूँ,अब और इल्ज़ाम न दो।
बे-ख़्याली में रहने दो, अब दर्द तमाम न दो।
इश्क़ के हुक्मरानों से,बस एक गुज़ारिश आखिर में,
टूट रहा हो जो तारा, उसे उसका आसमान न दो।
दिल-ओ-दीवार फांदकर,क्यूँ आते हो,मेरे तस्सवुर में,
राहत-ए-सफर में यूँ आकर, अब और विराम न दो।
तेरी जफ़ाओं के मंज़र,आज दफ़्न पड़े हैं कब्रों में,
इन बेहिसी के किस्से को, अब नया मक़ाम न दो।
दश्त-ए-तन्हाई में गुजरी हैं,कई वस्ल की रातें,
'रौशन' सवेरा करने को,अब बेकसी का नाम न दो।