ताउम्र शिकायत रही औरों से,आज खुद में कमी ढूँढते हैं,
वफ़ा-ओ-ख़ुलूस हो जिसमें,चलो ऐसा हमीं ढूँढते हैं।
नक़्श-ए-पा भी नहीं दिखते,उठते अब्र के दरम्यां,
औरों के आसमां से उतर, खुद की ज़मीं ढूँढते हैं।
शायद कोई तो होगा बा-वफ़ा इस जहां में,
मौसम-ए-ख़ुश्क जहां में,कहीं नमी ढूँढते हैं।
गर लुत्फ़-ए-ख़लिश से रु-ब-रु आता हो कोई,
खता तो यहाँ है,फिर क्यूँ कमी ढूँढते हैं।
भले रातों को "रौशन"करता हो दीया,