मुक़द्दर रो रहा होगा आज भारत की बेससी पर,
कलयुग मौज में अपने,लोगों के सिसकियों पर,
मर्माहत यहाँ सब है,सब दृष्टिगत तो है,
प्रभु क्या आप है जो बैठे धर्म के अट्टालिका पर?
आब-ओ-हवा विषाक्त है,शायद कुदरत का हुआ अपमान,
फ़िज़ा आज फिर से लेकर आई है मौत का फरमान,
गर कयामत ये नहीं तो और कयामत क्या होगी!
गली नुक्कड़ में लाशें जल रही,भरे पड़े सारे शमशान।
वज्र सा सीना भी झेल ना पा रहा वक़्त की मार,
किसी का टूटा आसमां तो किसी का बिखर गया संसार,
आँखें नम हो रही यहाँ सबकी हर रोज ही,
कैसे इन नयनो से देखें कोई अच्छे दिन का आसार।
लोकतंत्र बस नाम का,बिकी हुई सरकार है,
मदद करने की ओट में,चल रहा ऑक्सीजन का व्यापार है,
अपने मूल्यों,आदर्शों को रौंदने वालो,
ठहरों!तुमसे ही माँ भारती हो रही शर्मसार है।
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