मैं मकरंद, कली पर सिंचित और तुम रेशम की हार हो जाती।
परा प्रकृति की गोद में जब भी अतिक्रमण विस्तारित होता ,
मैं अकाट्य तिलिस्म हो जाता,तुम वीणा की तार हो जाती।
सहस्र द्वंदो से घिरा जब साहित्यिक चेतना हो सुप्त किंचित,
मैं बिहारी की कविता हो जाता,तुम नैसर्गिक श्रृऺगार हो जाती।
चंचलता के अभिभूत चित जब विरक्ति का मार्ग प्रशस्त करे,
मैं बहिर्मुखी अंतस का साधक,तुम विशिष्ट प्रत्याहार हो जाती।
बलि के बेदी पर शीश झुकाए जब धर्म हो निःशब्द खड़ा,
मैं गीता का ज्ञान हो जाता और तुम अभेद्य हुंकार हो जाती।
जब मानवता का लोप हो,मर्यादा अपनी लाज बचाती हो,
मैं काल भैरव का रौद्र रूप,तुम पिनाक की टंकार हो जाती।
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