मेरा बिखरा हुआ सा इश्क़, एक पुख़्ता बहर लगता है,
मेरे उजड़े से गुलशन में भी फूलों का शजर लगता है।
यकीनन ख़ाक हो जाओगे, मेरी पनाह के ख़्वाहिश में
मुझे मेरा ठिकाना भटकता हुआ दर-बदर लगता है।
क्यूँ भला मैं दर्द में हूँ और इन आँखों में नमी कैसी ?
हो ना हो ये किसी के यादों का तल्ख़ असर लगता है।
इन आँसुओं के सैलाब से कहीं समन्दर ना बन जाऊँ,
इल्तिजा है रोक लो अब इन आईनों से डर लगता है।
आफताब की किरणें भी, ठहर सी जाती है कहीं दूर,
मुझे बस मेरे ख़्वाबों में, "रौशन" मेरा सहर लगता है।
No comments:
Post a Comment