वक़्त ठहरा रहा शब भर,फिर ये शाम कैसे हो?
किसी का दिल मचलता हो,तुम्हें आराम कैसे हो?
ताज़्जुब नहीं मुझको,तेरा मौके पर बदल जाना,
जहाँ चिंगारी भड़कती हो,वहाँ एहतराम कैसे हो?
नसीहतें ज़माने की अबके जिगर के पार होती है
जिसका ठौर उससे छीन गया,फिर क़याम कैसे हो?
गर ख़लिश कहीं होती, तो आँखों में उतर आती,
तेरा सर्द लहजा हो तो होठों पर पयाम कैसे हो?
गर्द-ए-राह की मौज़ में,संभलते भी भला कैसे,
जहाँ तहरीर बदलती हो,वहाँ फिर नाम कैसे हो?
तेरी इन शोख़ बातों ने, मुझे पत्थर का बना डाला,
किसी की जालसाज़ी में, रौशन मक़ाम कैसे हो?